आज लोगो की संवेदना आत्म केंद्रित हो गई है । यह नगरीकरण और उदारीकरण का ही प्रभाव है। एक मिनट भी शुकून से बात नही कर सकते । केवल शब्दों की पच्चीकारी ही करते है । बनावटी भाषा का प्रयोग और दिखावटी मुस्कराहट ने तो लोगो की आत्मा को ही खंगाल दिया है । आप ही बताओ... इस संवेदना विहीन समाज में कैसे रहने का मन करेगा ?
ऐसा प्रतीत होता है ....हमारा समाज अब आखिरी साँसे ले रहा है । कुछ ही दिनों में उसकी मौत होने वाली है ...और उसके बाद हम जानवरों की तरह रहेगे । सामजिक समरसता ख़त्म होने के कगार पर है ..एक दुसरे को पीछे छोड़ना ही सभ्यता का प्रतिक हो गया है । मुझे अभी भी उम्मीद है की अन्तिम साँसे ले रहा समाज को कोई संजीवनी मिल जायेगी ।ऐसा भी हो सकता है ...मै ज्यादा आशावादी हो गया हूँ । कुछ भी हो उम्मीद का दामन तो छोड़ा नही जा सकता ...यह हमारी भी जिम्मेदारी है । संजीवनी हम भी ढूंढ़ सकते है ।
1 comment:
sanjiwni jarur mil jayegi..umeed rakhiye....boht achha likha apne...
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