मै भी एक विचित्र आदमी हूँ .अपने को जान रहा हूँ। परेशान हो रहा हूँ । कोई राह नही दिखती ।
सोचता हूँ ,विचित्रता क्या है .यह कितनी गहरी है .कोई नाम नही कोई पहचान नही ।
नही समझ पाता। खोज रहा हूँ ,कई दिनों से अंजुरी भर रोशनी । वो भी मुअस्सर नही ।
सारा ताना बाना अपने से ही छिपाता हूँ .बड़ा ही विचित्र आदमी हूँ ।
जानता हूँ चरित्र की जटिलता मुझमे नही है । साफ हूँ । फिर भी अपने से अनजान हूँ ।
विचित्र परिस्थितियों में ओस की बूंदों की तरह लुढ़कता रहा हूँ .निजपन का अभाव है ।
भय नही ,छल नही ,फिर भी विचित्र हूँ .ख़ुद से संवाद में माहिर हूँ ,पर प्रतिरोध में नही ।
अपने में निखर चाहता हूँ .मिसाल खड़ी करना चाहता हूँ ,पर लुदकाव जाता ही नही।
बेचैनी है ,वह भी विचित्र है।
सोचता हूँ ,जीवन एक बार मिलता है । उमर निकल जायेगी तब मेरी सतरंगी इच्छाओं का
क्या होगा ।
इसी सोच में समय बरबाद करता हूँ .बड़ा विचित्र आदमी
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